संदेश

जुलाई, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
चित्र
चार दिन की ज़िन्दगी लुफ्त उठाते रहिये शहर में अपनी भी पहचान बनाते रहिये कौन है ज़माने में जिसे गम नहीं अपनों के बीच यूँही मुस्कराते रहिये

दोस्त दो न रहा

अजब ज़माने का मंजर दिखाई देता है जहाँ कल खेत थे वहां बंजर दिखाई देता है दुश्मनों की बात क्या करें नादान दोस्तों के हाथ में भी खंजर दिखाई देता है
रोता हूँ रोज सवेरे जब अख़बार देखता हूँ पहले ही पन्ने पर हत्या बलात्कार देखता हूँ ............ फिर कातिल को सजा न दे पाई अदालत गवाहों को मुकरते बार बार देखता हूँ ................... ढूंढता रहा सारे दिन ख़बरों को पर ख़बरों से ज्यादा प्रचार देखता हूँ .............. दोष तुम्हारा नहीं खबरनवीशों मैं भी अख़बार के साथ उपहार देखता हूँ ........ खाली पड़े है मंदिर मस्जिद के रास्ते मैखानो में लम्बी कतार देखता हूँ .................. बेमानी से लगते है खून के रिश्ते जब एक घर चूल्हे चार देखता हूँ................
चित्र
गुजरे ज़माने की सुंदर तस्वीर