शनिवार, जुलाई 24, 2010


चार दिन की ज़िन्दगी लुफ्त उठाते रहिये
शहर में अपनी भी पहचान बनाते रहिये
कौन है ज़माने में जिसे गम नहीं
अपनों के बीच यूँही मुस्कराते रहिये

दोस्त दो न रहा


अजब ज़माने का
मंजर दिखाई देता है
जहाँ कल खेत थे
वहां बंजर दिखाई देता है
दुश्मनों की बात क्या
करें नादान
दोस्तों के हाथ में
भी खंजर दिखाई देता है

मंगलवार, जुलाई 13, 2010


रोता हूँ रोज सवेरे जब अख़बार देखता हूँ
पहले ही पन्ने पर हत्या बलात्कार देखता हूँ ............

फिर कातिल को सजा न दे पाई अदालत
गवाहों को मुकरते बार बार देखता हूँ ...................

ढूंढता रहा सारे दिन ख़बरों को
पर ख़बरों से ज्यादा प्रचार देखता हूँ ..............

दोष तुम्हारा नहीं खबरनवीशों
मैं भी अख़बार के साथ उपहार देखता हूँ ........

खाली पड़े है मंदिर मस्जिद के रास्ते
मैखानो में लम्बी कतार देखता हूँ ..................

बेमानी से लगते है खून के रिश्ते
जब एक घर चूल्हे चार देखता हूँ................